सन्तोष व्यास
Saturday, December 17, 2005
Wednesday, November 02, 2005
भगतसिंह का प्रश्न
सुलगती डबडबाई
आंखें तड़पती आवाज़
सुलगता हुआ अंदाज़
रात सपने में बोला
शहीदे आज़म
सौगंध है भारत माँ की
दिल में एक रही झांकी
केवल आजादी की आशिकी
और इसके लिए ही खाई फांसी
हम सबका मस्तक ऊँचा उठाने
कि गुलाम न रहे
मेरे देश के मस्ताने
पर क्यों?
आज काट रहें हैं बांट रहे हैं
छांट रहे हैं भारती के अंगो को
उसके ही बेटे
जिनके पुरखे तक जिसकी गोद में लेटे
इस दिन के लिए
आजाद हुए क्या ये परिन्दे?
माँ क्यों न हो गई बाँझ
जन्मते न ये मक्कार दरिंदे
इन पर सवार अब
खून थूकती हैवानियत
फेंक दी उतारकर
जिन्होंने देश-भक्ति और इंसानियत
हमारी देशभक्ति को मिली फाँसी
देश-द्रोही चाहते अब तवज्जो खासी
बापू तेरे देश मे
दरक रही अहिंसक दीवारें
देश भक्ति के नाम पर
केवल कोरे नारे
मेरे देश वासियों !
कब तक ढोओगे
दोगले पापों को ?
तुम्हें ही कुचलना होगा
इन ज़हर उगलते सांपों को
धिक्कार वह समाज
जब वक्त ही बेईमान निकले
बातें षडयंत्र सनी
विश्वास दगाबाज़ निकले
देश सेवा और जन
जनतंत्र में भटका रहे
शर्म से सिर झुक गया है
रक्षक ही कातिल निकले
हर चौराहे पर खड़ा अब
सांड भ्रष्टाचार का
नीलाम होती इंसानियत
बेहाल है ईमान का
अक्षमता स्वयं नंगी,
बांझ शांति रो रही
विद्रोही दिशाएं चीखती
वातावरण तूफान का
मक्कार इरादों की नशीली आवाजें
अब आम है
बलिदान के सारे कथन नीलाम है
प्राचीनता का दंभी शंख बजाते मंदिर
नफरतों का बारूद उगलती मस्ज़िदे
धर्मांतरण का धीमा-धीमा ज़हर घोलते गिरजे
वर्णों, वर्गो और भाषा के धधकते ज्वालामुखी
रोज सुबह नपे चरित्र की पीढ़ी-सी
कहानियां बांटते
समाचारो के सूरजमुखी
देखकर सोचने लगा हूँ
लहूलुहान देश की माटी
चुनौती बनी संधियाँ
सत्तालोलुप चालों की
सडांध से भरी है आज आंधियां
टुकड़े-टुकड़े में बांटे गये
भाई चारे के आधार
भ्रष्टाचार थपेड़ों में मटमैली निष्ठा
अर्थहीन संघर्षों की भयानक क्रीडाएं
आवारा मुखौटों की शिखंडी पीड़ाएं
देख सोचता हूँ
लहू सींच दिया वतन पर तभी हरा भरा होगा
फांसी के फंदे पर कैसा सपना जन्मा होगा
नागफनी-सी फैली यादें कठिन गुलामी की
जितनी भोगी कठिन गुलामी उतने दिन
भारत आजाद रहेगा......?
***
भ्रष्टाचार थपेड़ों में मटमैली निष्ठा
अर्थहीन संघर्षों की भयानक क्रीडाएं
आवारा मुखौटों की शिखंडी पीड़ाएं
देख सोचता हूँ
लहू सींच दिया वतन पर तभी हरा भरा होगा
फांसी के फंदे पर कैसा सपना जन्मा होगा
नागफनी-सी फैली यादें कठिन गुलामी की
जितनी भोगी कठिन गुलामी उतने दिन
भारत आजाद रहेगा......?
***
-सन्तोष व्यास
प्रकृति
कह देते हो मीठी थकान
जब धीमी-धीमी बोली में
जैसे कलियाँ चुपचाप, ओस को
बिठा रही हो ओली में।
मदमस्त पवन अपनी धुन में
झकझोर डालता कलियों को
बेसुध कर जाता वन-कानन
सुरभित कर जाता गलियों को
जीवन-सरिता के कूल सदा
स्वागत हित बाहें फैलाए
मन की धड़कन को लहर लहर में
चले जा रहे हैं गाए
सबके अपने आनंद, प्रकृति के
अर्थ अलग पहचाने हैं
चल रहे पराये पांवों पर
ये मार्ग बहुत अनजाने है।
***
-संतोष व्यास
ना हुआ प्यार भी हमसे सलीके से
लोग कर लेते हैं हर को तरीके से
ना हुआ प्यार भी हमसे सलीके से।
हर पत्थर को चुन चुन करके हमने राह बनाई
जाने क्यूँ चलने पर उभरा दर्द आँख भर आई
मन और कर्म का संघर्ष कुछ बढ़ा ऐसा
हो गए तार-तार पात हम कदली के से
ना हुआ प्यार भी हमसे सलीके से।
हुई कुछ जिन्दगी ऐसी सहम कर बात करते हैं
जान कर भी उलझते हैं, वहम की बात करते हैं
उलझना या वहम करना इसी में जिन्दगी बीती
सच कहूँ, वहम भी हमसे न हुआ सलीके से
ना हुआ प्यार भी हमसे सलीके से।
***
-सन्तोष व्यास
Tuesday, November 01, 2005
जिंद़गी इक मधुर गीत है
** गीत **
जिंद़गी इक मधुर गीत है
हैं इसे गुनगुनाने के दिन
दूर जाने के मौसम कभी
हैं कभी पास आने के दिन।
हो चुका है बहुत मान अब
हद से अब दूर मत जाइए
ताप दे दो जमीं बर्फ को
ये हिमालय गलाने के दिन।
बढ़ गए हैं बहुत फासले
मन-कुरंगों से कह दो रुकें
खाईं हमने जो कसमें कभी
आये उनको निभाने के दिन।
उड़ लिए आसमां में बहुत
अब जमीं पर उतर आइए
सोते 'संतोष` अब तक रहे !
आ गए जाग जाने के दिन।
***
-संतोष व्यास